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कविता

दो हिस्से

नीलेश रघुवंशी


आत्मकथ्य

मेरे प्राण मेरी कमीज के बाहर
आधी उधड़ चुकी जेब में लटके हैं
मेरी जेब में उसका फोटो है
रोपा जा रहा है जिसके दिल में
फूल विस्मरण का...!
झूठ फरेबी चार सौ बीसी
जाने कितने मामले दर्ज हैं मेरे ऊपर
इस भ्रष्ट और अंधे तंत्र से
लड़ने का कारगर हथियार नहीं मेरे पास
घृणा आततायी को जन्म देती है
आततायी निरंकुशता को
प्रेम किसको जन्म देता है...?
अपना सूखा कंठ लिए रोता हूँ फूट फूटकर
मेरी जेब में तुम्हारा फोटो है
कर गए चस्पाँ उसी पर
नोटिस गुमशुदा की तलाश का...!

एक बूढ़ी औरत का बयान

मथुरा की परकम्मा करने गए थे हम
वहीं रेलवे स्टेशन पे भैया...
(रोओ मत! पहले बात पूरी करो फिर रोना जी भर के)
साब भीड़ में हाथ छूट गए हमारे
पूरे दो दिन स्टेशन पर बैठी रही मनो वे नहीं मिले
ढूँढ़त ढूँढ़त आँखें पथरा गईं भैया मेरी
अब आप ही कुछ दया करम करो बाबूजी
(दो चार दिन और इंतजार करो बाई आ जाएँगे खुद ब खुद!)
नहीं आ पाएँगे बेटा वे पूरो एक महीना और पंद्रह दिन हो गए
वे सुन नहीं पाते और दिखता भी नहीं उन्हें अच्छे से!
(बुढ़ापे में चैन से बैठते नहीं बनता घर में! जाओ और करो परकम्मा...
कहाँ की रहने वाली हो?)
अशोक नगर के!
(घर में और कोई नहीं है क्या?)
हैं! नाती पोता सब हैं भैया!
(फिर तुम अकेली क्यों आती हो?
लड़कों को भेजना चाहिए था न रिपोर्ट लिखाने...)
वे नहीं आ रहे न वे ढूँढ़ रहे
कहते हैं...
तुम्हीं गुमा के आई हो सो तुम्हीं ढूँढ़ो!
लाल सुर्ख साड़ी में एकदम जवान
दद्दा के साथ कितनी खूबसूरत बूढ़ी औरत
इसी फोटो पर चस्पाँ
नोटिस गुमशुदा की तलाश का...!


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